दामिनयों का दामन आज भी न महफूज़ क्यूं?
अस्मत पे नापाक निगाहे, पाप की भूख क्यूं ?
तीन बरस बाद भी सिलसिले वही बरकरार है
रोज नई दामिनी सिसकती,हो रहा तिरस्कार है
नाबालिगी ठप्पे से उड़ने को तैयार दरिंदा वह
इंसानियत का शिकारी क्यूं आजाद परिंदा वह
हैवानियत में मसरुफ ,शिकार की आस में
कानून बेबस मजबूर, हदों की फांस में
मोमबतियां जलाने से न तुफान बुझ पायेंगे
रुकेंगे तभी , वहशी सरेआम फांसी खायेंगे
पाप कानून से बड़ा क्यूं ?
न्याय चुपचाप खड़ा क्यूं ?
रब के इंसाफ पे बस बचा एतबार है
ओर बड़े दरदेमंजर का शायद इंतजार है
तभी बेहद बेबस कानून है
न्याय डाले बैठा हथियार है
Rajni Vijay Singla